Friday, October 28, 2011

"शुभ दीपावली "


एक नूर का टुकड़ा बचा के अपनी छत पर जले चिरागों से ,
सांस उड़ेल दें बुझे पड़े मिटटी के कच्चे आलों में.
इस बार हो बारूद के धब्बे उलझे हवा की चादर में,
मुस्कान बिखेरो और रंग दो मावस को आज उजालों में.
इस बरस बुझे आस कोई , कोई दामन खाली हो,
दीवार नहीं दिल भी जगमग हो , कुछ ऐसी दीवाली हो

"शुभ दीपावली " - विवेक

Wednesday, October 19, 2011

कभी ख़याल डगमगायेंगे...


कभी ख़याल डगमगायेंगे , कभी अल्फाज़ कांपते होंगे .
हाँ मगर लम्हों की लहरों को जब टटोलोगे. लाखों तूफ़ान झांकते होंगे.

किसी लहर की स्याही से कलम भर लेना , उड़ेल देना यादों के सफ़ेद कागज़ पे,
देखना धड़कने तुकबन्दियाँ सुझा देंगी, ग़ज़ल के चेहरे से घूंघट भी सरकते होंगे.

किसी दिन फुरसतों के बाग़ में बैठे-बैठे , ज़ेहन की मखमली टहनी को जब कुरेदोगे,
देखना आज भी मुरझाये दो गुलाबों के ,निशान उँगलियों के बीच उभरते होंगे .

दफन कर तो दिया है डायरी के पन्नो में , साथ गुज़रे सुहाने वक़्त के हर साए को.
मगर तस्वीर उसकी हाथ में लेकर अक्सर,गर्म आहें तो तुम आज भी भरते होंगे

-" विवेक "

Monday, August 29, 2011

गर मेरे चाँद की फिर आज दीद हो जाये ...


गर मेरे चाँद की फिर आज दीद हो जाये ,बिना रोज़े के इस काफिर की ईद हो जाए.


पड़ी है चांदनी बेजान सी मुंडेरों पर ,तुम आओ छत पे तो बदर* की ज़रा सांस चले.

बर्फ सी सर्द मेरे हाथ की लकीरों पे ,तेरे आँचल से उठती कोई मीठी आंच चले.

आ एक दूसरे के माथे की शिकन पी लें,एक मुलाक़ात में हम सारी ज़िन्दगी जी लें.

क्या पता कल तेरे लिए में आस बन जाऊं ,और तू कल मेरे लिए उम्मीद हो जाए....


उड़ेल नूर चेहरे पर बुझा हया के दिए,मखमली तन पे लपेटे लिबास खुशबू का.

लटों में गूंथ के शबनम के मचलते नश्तर ,पलक की खिडकियों पे दाल पर्दा जादू का.

आ मुझपे यूं बिखर ज्यों ख़ाक से बरसात मिले.लिखी हो मौत आज तो तेरे ही हाथ मिले.

ढाल कर नाम अपना तेरे लब के साँचो में ,इन्ही से आज ये आशिक शहीद हो जाये....

गर मेरे चाँद की फिर आज दीद हो जाये ...

बदर*=चाँद

Friday, May 20, 2011

एक अधपकी ग़ज़ल...


वक़्त की रेत पर लिखा अधूरा लम्हा हूँ,
लहर को छूके पल में दास्तान हो जाऊं.
बसा लो तो नज़र में ख्वाब बन के रह जाऊं,
बहा लो गर तो अश्कों से बयान हो जाऊं..


नफरतों में झुलसती जा रही तहजीबों से,
आ बगावत करें हम हाथ की लकीरों से.
ओढ़कर प्रीत का आँचल तू मीरा हो जाना,
मैं मोहब्बत बिखेरता कुरान हो जाऊं.


तेरी दुआ हूँ मैं होठों पे बिखर जाऊँगा ,
आस की राह से साँसों में उतर जाऊंगा .
मैं तेरी नब्ज़ के सांचों में ढाल कर खुद को ,
तेरी खामोश धड़कन की ज़बान हो जाऊं.

Wednesday, March 16, 2011

फिर से सपनो के चूल्हे पर उम्मीद पकाई जाए.

कच्ची नींदों की आंच ,उदासी के झोंकों से बुझती है..

आँखों की सूखी हांडी में,यादों की खुरचन चुभती है .

बिसरी बातों की राख दबी हसरत सुलगाई जाए..

फिर से सपनो के चूल्हे पर,उम्मीद पकाई जाए.


बेरंग दवात गिरा कागज़ पर ,फीके नगमे बहुत बुने..

तकिये से छुपा तस्वीर कोई,खारी बूंदों के साज़ सुने.

कहती है कलम गीतों में अब चोखा सा कोई रंग भरें.

और रंग में खिलती अल्हड सी एक ग़ज़ल सजाई जाये...

फिर से सपनो के चूल्हे पर उम्मीद पकाई जाये.


पलकों की खाली डिबिया में फिर चंदा की परछाई हो...

रातों को तारे गिनते-गिनते गुम होती तन्हाई हो.

एक ज़िक्र पे ठंडी आह चुभे ,एक नाम लिए अंगडाई हो..

एक झलक की आस में जाग-जाग फिर आँख सुजाई जाये.

फिर से सपनो के चूल्हे पर उम्मीद पकाई जाए.

Monday, March 14, 2011

बीती आधी सदी मगर...


बीती आधी सदी मगर , एक दौर अभी भी ठहरा है.

कुछ हलकी फुलकी यादों का , आखों पे असर अभी गहरा है.

कुछ अपने रंग में रंग लिया ,कुछ साथ रहा कुछ छूटा है.

कभी वक़्त ने होंठ पे हंसी रखी, कभी रुला गया जब रूठा है.


कल ही की बात तो लगती है ,कुछ कांपते-थमते क़दमों से.

एक सोच ज़मीन पर उतरी थी,तकनीक के धुंधले सपनों से.

एक कौम ने मन में ठानी थी, दुनिया के रंग बदलने की.

न थमने वाली उड़ानों को,अपने पंखों में भरने की.


फिर यूं ही हाथ से हाथ मिले,और नीव पड़ी एक दुनिया की.

जहाँ फर्क न था तहजीबों का,न ज्ञान की कोई सरहद थी.

आँखों को मलती थी सुबह,नयी राह दिखाके उजालों की.

बेफिक्र सी शामें घुलती थी, सोहबत में हँसते यारों की.


इन पांच दशक में न जाने,कितने आयाम तराशे हैं.

लम्हों की रेत जकड़ने को,फुर्सत के कुरेदे सांचे हैं.

न जाने कितनी मशीनों में,दम भरा है मेरे सायों ने.

जाने कितने घर-इमारत को,साँसे दी हैं उन हाथों ने.


न सिर्फ ज़बान किताबों की, पुर्जों की और पसीने की.

तालीम बिखेरी है मैंने, नयी कौम में खुलकर जीने की.

यूं तो मेरे भी दामन में,काली रातों के किस्से हैं.

पर धुप की प्यास जगाने में,ये भी तो वाजिब हिस्से हैं.


अब आज खड़ा हूँ मैं MANIT ,दुनिया में एक मिसाल लिए.

जो बीत गया है उसको दीवारों के पीछे क़ैद किये.

आवाज़ नयी है; नाम नया ,भीतर तो मगर वही चेहरा है.

बीती आधी सदी मगर,एक दौर अभी भी ठहरा है....

एक दौर अभी भी ठहरा है...

Sunday, October 17, 2010

tu hai zameen pe to falaq sajaaye baitha kaun hai...


तू है ज़मीन पे तो फलक सजाये बैठा कौन है ,
,नूर बनकर ज़ेहन की गलियों में बहता कौन है.
लोग कहते हैं बशर मर के ही पाता है खुदा .
तो जिसका हो चुका हूँ जीते-जी वो खुदा कौन है.

किसकी तस्वीर है जो पलकों में उलझती है..
किसकी आवाज़ है जो कानो पे थिरकती है.
किसकी खुशबू है जो घुल गयी है साँसों में.
किसका एहसास है है जो जम गया है बाहों में .
किसके होंठों के लिए शायरी पिरोते हैं,
किसकी आहट की चादरें लपेट सोते हैं.
तुम्ही तो हो जिसकी ख़्वाबों से अपने यारी है,
सुबह से शाम ख्यालों में और होता कौन है.
तू है ज़मीन पे तो फलक सजाये बैठा कौन है....