Monday, August 29, 2011

गर मेरे चाँद की फिर आज दीद हो जाये ...


गर मेरे चाँद की फिर आज दीद हो जाये ,बिना रोज़े के इस काफिर की ईद हो जाए.


पड़ी है चांदनी बेजान सी मुंडेरों पर ,तुम आओ छत पे तो बदर* की ज़रा सांस चले.

बर्फ सी सर्द मेरे हाथ की लकीरों पे ,तेरे आँचल से उठती कोई मीठी आंच चले.

आ एक दूसरे के माथे की शिकन पी लें,एक मुलाक़ात में हम सारी ज़िन्दगी जी लें.

क्या पता कल तेरे लिए में आस बन जाऊं ,और तू कल मेरे लिए उम्मीद हो जाए....


उड़ेल नूर चेहरे पर बुझा हया के दिए,मखमली तन पे लपेटे लिबास खुशबू का.

लटों में गूंथ के शबनम के मचलते नश्तर ,पलक की खिडकियों पे दाल पर्दा जादू का.

आ मुझपे यूं बिखर ज्यों ख़ाक से बरसात मिले.लिखी हो मौत आज तो तेरे ही हाथ मिले.

ढाल कर नाम अपना तेरे लब के साँचो में ,इन्ही से आज ये आशिक शहीद हो जाये....

गर मेरे चाँद की फिर आज दीद हो जाये ...

बदर*=चाँद