Sunday, July 5, 2009

phir wahi saawan.......

क्या बात नयी है सावन में,हैं तड़पन के अंदाज़ वही,
रिमझिम में शोर झलकता है,गिरती है सीने गाज वही.

प्यासी पथराई आँखों से,होती है बारिश खारी सी,
कानों को चीर गुज़रती है,सिसकी लेती आवाज़ वही.

अब भी होती हैं चुपके से,बातें अपनी परछाई से,
गुंजन से मोर पपीहे की,खुलते हैं अब भी राज़ वही.

दर्दीली तानें यादों की, फिर से सरगोशी करती हैं,
संगत देते हैं ज़ख्मो के,बिखरे-बिखरे से साज़ वही.

वो इन्द्रधनुष की आड़ लिए,आकाश पे कालिख मलता है,
इस बार भी उठती आंधी में,थमी ख़्वाबों की परवाज़ वही.

फिर सपनो की पगडण्डी पर चलते-चलते पग फिसले हैं,
फिर घात लगाए बैठें हैं , मटमैले - काले बाज़ वही.

एक धूप का टुकडा माँगा तो,भीगी-अंधियारी रात मिली,
नन्हे अरमान कुचलने का,कायम है यहाँ रिवाज़ वही.

क्या बात नयी है सावन में,हैं तड़पन के अंदाज़ वही.
रिमझिम में शोर झलकता है,गिरती है सीने गाज वही.

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